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रीवा रियासत: एक ऐतिहासिक प्रश्नोत्तरी | आचार्य आशीष मिश्र

रीवा रियासत

एक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक प्रश्नोत्तरी

ज्ञान परीक्षा

बघेल राजवंश के संस्थापक कौन थे?
एक शब्द में:

व्याघ्रदेव

संक्षेप में:

बघेल राजवंश के संस्थापक व्याघ्रदेव थे। उन्होंने 13वीं शताब्दी के मध्य में उत्तर भारत की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर गहोरा को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया और इस वंश की नींव डाली।

कुछ विस्तार से:

बघेल राजवंश के संस्थापक व्याघ्रदेव थे, जिनका मूल संबंध गुजरात के वाघेला शासकों से था। उन्होंने 13वीं शताब्दी में सबसे पहले मारफा के किले पर विजय प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने गहोरा को अपनी राजधानी बनाकर एक नए राजवंश की स्थापना की, जिसे बाद में उन्हीं के नाम पर 'बघेलखंड' कहा गया।

पूर्ण विवरण:
संगीत सम्राट तानसेन किस बघेल शासक के दरबारी थे?
एक शब्द में:

रामचंद्र

संक्षेप में:

संगीत सम्राट मियां तानसेन, सम्राट अकबर के दरबार में जाने से पहले, रीवा के महाराजा रामचंद्र बघेल के दरबारी गायक थे। यहीं पर उनकी संगीत प्रतिभा को वास्तविक सम्मान और निखार मिला।

कुछ विस्तार से:

महाराजा रामचंद्र बघेल कला और संगीत के महान संरक्षक थे और उनका शासनकाल सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्ण युग माना जाता है। विश्व प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन प्रारंभ में इन्हीं के दरबार की शोभा थे। तानसेन की ख्याति सुनकर ही अकबर ने उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल होने के लिए रीवा से आगरा बुलवाया था।

पूर्ण विवरण:
रीवा रियासत की राजधानी बांधवगढ़ से रीवा किसने स्थानांतरित की?
एक शब्द में:

अनूप सिंह

संक्षेप में:

महाराजा अनूप सिंह ने लगभग 1654 ईस्वी में बघेल रियासत की राजधानी को अभेद्य माने जाने वाले बांधवगढ़ के पहाड़ी दुर्ग से रीवा में स्थानांतरित किया।

कुछ विस्तार से:

महाराजा अनूप सिंह, जो औरंगजेब के समकालीन और विश्वसनीय सामंत थे, ने यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया। रीवा, नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण व्यापार, संचार और प्रशासन के लिए अधिक उपयुक्त था। इस स्थानांतरण के पीछे मुगल साम्राज्य का बढ़ता प्रभाव और मैदानी इलाकों में प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने की आवश्यकता भी एक प्रमुख कारण था।

पूर्ण विवरण:
रीवा को "सफेद बाघ की भूमि" के रूप में अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने का श्रेय किस शासक को जाता है?
एक शब्द में:

मार्तंड सिंह

संक्षेप में:

रीवा के अंतिम शासक महाराजा मार्तंड सिंह जुदेव को "सफेद बाघ की भूमि" के रूप में पहचान दिलाने का श्रेय जाता है। उन्होंने ही 1951 में 'मोहन' नामक पहले जीवित सफेद बाघ शावक को पकड़ा था।

कुछ विस्तार से:

महाराजा मार्तंड सिंह को विश्व स्तर पर सफेद बाघों के प्रजनक के रूप में अद्वितीय ख्याति प्राप्त है। 27 मई 1951 को उन्होंने मोहन नामक एक सफेद बाघ शावक को पकड़ा, जिसे गोविंदगढ़ के महल में पाला गया। मोहन से ही दुनिया भर में पाले जाने वाले अधिकांश सफेद बाघों की वंश परंपरा शुरू हुई, जिससे रीवा को यह विशिष्ट पहचान मिली।

पूर्ण विवरण:
रीवा रियासत ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सहायक संधि कब की?
एक शब्द में:

1812-13

संक्षेप में:

रीवा रियासत ने महाराजा जय सिंह देव के शासनकाल में वर्ष 1812 और 1813 में दो चरणों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए।

कुछ विस्तार से:

पिंडारियों और मराठों के निरंतर विनाशकारी आक्रमणों से उत्पन्न अराजकता और असुरक्षा से राज्य को बचाने के लिए यह निर्णायक कदम उठाया गया। इस संधि के माध्यम से रीवा रियासत औपचारिक रूप से ब्रिटिश संरक्षण में आ गई। यद्यपि इससे राज्य को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा मिली, लेकिन इसने रियासत की बाह्य संप्रभुता को समाप्त कर दिया और औपनिवेशिक नियंत्रण का एक नया अध्याय शुरू किया।

पूर्ण विवरण:

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व्याघ्रदेव: बघेल वंश के संस्थापक

व्याघ्रदेव को परंपरागत रूप से बघेल (वाघेला) राजवंश का संस्थापक माना जाता है, जिनका मूल संबंध गुजरात के सोलंकी और वाघेला शासकों से था। वे गुजरात के वाघेला शासक वीर धवल के पुत्र थे और गुजरात से पूर्व की ओर आए थे। 13वीं शताब्दी के मध्य में, जब दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी और चंदेल तथा कल्चुरी जैसी क्षेत्रीय शक्तियाँ पतन की ओर थीं, व्याघ्रदेव ने इस राजनीतिक शून्य का लाभ उठाया। उन्होंने अपनी सैन्य प्रतिभा और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सबसे पहले कालिंजर के दक्षिण-पूर्व में स्थित मारफा (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में) के अभेद्य किले पर अधिकार स्थापित किया। यह उनकी पहली महत्वपूर्ण विजय थी जिसने इस क्षेत्र में उनके आगमन की घोषणा की। इसके पश्चात, उन्होंने गहोरा (चित्रकूट के निकट, वर्तमान में उत्तर प्रदेश में स्थित) को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया और यहीं से बघेल शासन की नींव डाली। उनका यह कदम अत्यंत रणनीतिक था, क्योंकि यह स्थान दिल्ली और पूर्व की शक्तियों के बीच एक बफर जोन में स्थित था। व्याघ्रदेव ने न केवल एक नए राजवंश की स्थापना की, बल्कि उन्होंने इस क्षेत्र को एक नई राजनीतिक पहचान भी दी, जिसे बाद में उन्हीं के वंश के नाम पर 'बघेलखण्ड' कहा गया।

महाराजा रामचंद्र बघेल: कला और संगीत के पारखी

महाराजा रामचंद्र बघेल का शासनकाल बघेल राजवंश के इतिहास में सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्ण युग माना जाता है। वे मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे और उनके साथ उनके घनिष्ठ एवं मैत्रीपूर्ण संबंध थे, जिसकी नींव उनके पिता वीरभानु ने हुमायूँ की मदद करके रखी थी। महाराजा रामचंद्र कला, साहित्य और संगीत के महान संरक्षक और पारखी थे। विश्व प्रसिद्ध संगीत सम्राट मियां तानसेन प्रारंभ में इन्हीं के दरबारी गायक थे और यहीं उनके संगीत को वास्तविक सम्मान और निखार मिला। तानसेन की ख्याति सुनकर ही अकबर ने अपने दरबारी जलाल खान कोरची को भेजकर उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल करने के लिए रीवा से आगरा बुलवाया था। कहा जाता है कि बीरबल भी कुछ समय तक महाराजा रामचंद्र के दरबार से जुड़े रहे थे। राजनीतिक रूप से, उन्होंने 1569 में, कालिंजर का किला अकबर को सौंपकर मुगलों से एक औपचारिक संधि की और उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, लेकिन इसके बदले में उन्होंने अपने राज्य में पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता बनाए रखी। उनका दरबार उस समय उत्तर भारत के सबसे प्रतिष्ठित सांस्कृतिक केंद्रों में से एक था।

अनूप सिंह: रीवा के संस्थापक

महाराजा अनूप सिंह का शासनकाल बघेल इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। वे मुगल सम्राट शाहजहाँ और औरंगजेब के समकालीन थे। वे औरंगजेब के विश्वसनीय सामंतों में गिने जाते थे और उन्होंने मुगल साम्राज्य के दक्षिण अभियानों, विशेषकर गोलकुंडा और बीजापुर के विरुद्ध अभियानों में महत्वपूर्ण सैन्य भूमिका निभाई थी। उनकी वफादारी और सेवाओं से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने उन्हें 'महाराजा' की उपाधि प्रदान की थी। उनका सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाला कार्य लगभग 1654 ईस्वी के आसपास राजधानी को सामरिक दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित माने जाने वाले बांधवगढ़ के पहाड़ी दुर्ग से रीवा में स्थानांतरित करना था। रीवा, टोंस और बीहर नदियों के संगम के निकट स्थित होने के कारण व्यापार, संचार और प्रशासनिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त था। इस स्थानांतरण के पीछे मुगल साम्राज्य का बढ़ता प्रभाव और मैदानी इलाकों में प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने की आवश्यकता भी एक प्रमुख कारण हो सकती है। उन्होंने रीवा शहर की विधिवत नींव रखी, किले का निर्माण करवाया और इसके प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे रीवा बघेलखंड का नया राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया।

महाराजा मार्तंड सिंह जुदेव: अंतिम शासक और सफेद बाघों के संरक्षक

महाराजा मार्तंड सिंह जुदेव बघेल राजवंश के अंतिम शासक थे, जिन्होंने भारत के इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संक्रमण काल में शासन किया। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात, सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में चल रही रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया के तहत, उन्होंने 1948 में रीवा रियासत का भारतीय संघ में विलय करने के 'विलय पत्र' (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद रीवा, बघेलखंड की अन्य रियासतों के साथ मिलकर, नवगठित 'विंध्य प्रदेश' का हिस्सा बना। महाराजा मार्तंड सिंह को विंध्य प्रदेश (1948-1956) का प्रथम राजप्रमुख भी नियुक्त किया गया। बाद में वे भारतीय राजनीति में भी सक्रिय रहे और कई बार रीवा से लोकसभा के सदस्य (सांसद) चुने गए। महाराजा मार्तंड सिंह को विश्व स्तर पर सफेद बाघों के प्रजनक के रूप में अद्वितीय ख्याति प्राप्त है। 27 मई 1951 को उन्होंने मोहन नामक एक सफेद बाघ शावक को पकड़ा था, जिसे गोविंदगढ़ के महल में पाला गया। मोहन से ही दुनिया भर में पाले जाने वाले अधिकांश सफेद बाघों की वंश परंपरा शुरू हुई। उन्होंने रीवा को 'लैंड ऑफ व्हाइट टाइगर्स' के रूप में अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई।

महाराजा जय सिंह देव: ब्रिटिश संरक्षण की शुरुआत

महाराजा जय सिंह देव का शासनकाल रीवा के इतिहास में एक युगांतकारी मोड़ था। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती शासकों के समय हुए पिंडारियों और मराठों के निरंतर विनाशकारी आक्रमणों से उत्पन्न अराजकता, आर्थिक विनाश और राजनीतिक असुरक्षा का दंश झेला था। राज्य को इस विनाश से बचाने और एक स्थायी शांति स्थापित करने के लिए, उन्होंने एक निर्णायक और दूरगामी कदम उठाया। वर्ष 1812 और 1813 में, उन्होंने दो चरणों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक सहायक संधि (Treaty of Subsidiary Alliance) पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के माध्यम से रीवा रियासत औपचारिक रूप से ब्रिटिश संरक्षण में आ गई। इसके बदले में, अंग्रेजों ने रीवा को बाहरी आक्रमणों, विशेषकर पिंडारियों के आतंक से, सुरक्षा प्रदान करने का वचन दिया। यद्यपि इस संधि ने राज्य को तत्काल सुरक्षा और शांति प्रदान की, लेकिन इसने रियासत की बाह्य संप्रभुता को समाप्त कर दिया और रीवा के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश रेजीडेंट के माध्यम से हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त किया। यहीं से रीवा पर औपनिवेशिक नियंत्रण का एक नया अध्याय शुरू हुआ जो 1947 तक चला।

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