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रीवा रियासत: एक शाही गाथा | आचार्य आशीष मिश्र

रीवा रियासत

विंध्य के वैभव की एक रोमांचक दास्ताँ

शोध एवं संपादन: आचार्य आशीष मिश्र

बघेल राजवंश ने बघेलखंड क्षेत्र पर सदियों तक शासन किया। उन्होंने दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य के उत्थान-पतन को देखा और कला, साहित्य व संगीत को उदारतापूर्वक संरक्षण दिया। नीचे दिए गए प्रश्नों के माध्यम से रीवा रियासत के गौरवशाली इतिहास और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की यात्रा करें।

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प्रमुख बघेल शासक

बघेल राजवंश के संस्थापक कौन थे और उन्होंने अपनी प्रारंभिक राजधानी कहाँ बनाई?

व्याघ्रदेव, गहोरा

संक्षेप में

बघेल राजवंश के संस्थापक व्याघ्रदेव थे। उन्होंने 13वीं शताब्दी में उत्तर भारत की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर गहोरा को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया और इस वंश की नींव डाली।

विस्तार से

व्याघ्रदेव, जिनका संबंध गुजरात के वाघेला शासकों से था, ने 13वीं शताब्दी में सबसे पहले मारफा के किले पर विजय प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने गहोरा को अपनी राजधानी बनाकर एक नए राजवंश की स्थापना की, जिसे बाद में उन्हीं के वंश के नाम पर 'बघेलखंड' कहा गया।

व्याघ्रदेव को परंपरागत रूप से बघेल (वाघेला) राजवंश का संस्थापक माना जाता है, जिनका मूल संबंध गुजरात के सोलंकी और वाघेला शासकों से था। वे गुजरात के वाघेला शासक वीर धवल के पुत्र थे और गुजरात से पूर्व की ओर आए थे। 13वीं शताब्दी के मध्य में, जब दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी और चंदेल तथा कल्चुरी जैसी क्षेत्रीय शक्तियाँ पतन की ओर थीं, व्याघ्रदेव ने इस राजनीतिक शून्य का लाभ उठाया। उन्होंने अपनी सैन्य प्रतिभा और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सबसे पहले कालिंजर के दक्षिण-पूर्व में स्थित मारफा (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में) के अभेद्य किले पर अधिकार स्थापित किया। यह उनकी पहली महत्वपूर्ण विजय थी जिसने इस क्षेत्र में उनके आगमन की घोषणा की। इसके पश्चात, उन्होंने गहोरा (चित्रकूट के निकट, वर्तमान में उत्तर प्रदेश में स्थित) को अपनी प्रारंभिक राजधानी बनाया और यहीं से बघेल शासन की नींव डाली। उनका यह कदम अत्यंत रणनीतिक था, क्योंकि यह स्थान दिल्ली और पूर्व की शक्तियों के बीच एक बफर जोन में स्थित था। व्याघ्रदेव ने न केवल एक नए राजवंश की स्थापना की, बल्कि उन्होंने इस क्षेत्र को एक नई राजनीतिक पहचान भी दी, जिसे बाद में उन्हीं के वंश के नाम पर 'बघेलखण्ड' कहा गया।

संगीत सम्राट तानसेन किस बघेल शासक के दरबारी थे?

रामचंद्र बघेल

संक्षेप में

संगीत सम्राट मियां तानसेन, सम्राट अकबर के दरबार में जाने से पहले, रीवा के महाराजा रामचंद्र बघेल के दरबारी गायक थे। यहीं पर उनकी संगीत प्रतिभा को वास्तविक सम्मान और निखार मिला।

विस्तार से

महाराजा रामचंद्र बघेल कला और संगीत के महान संरक्षक थे और उनका शासनकाल सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्ण युग माना जाता है। विश्व प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन प्रारंभ में इन्हीं के दरबार की शोभा थे। तानसेन की ख्याति सुनकर ही अकबर ने उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल होने के लिए रीवा से आगरा बुलवाया था।

महाराजा रामचंद्र बघेल का शासनकाल बघेल राजवंश के इतिहास में सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्ण युग माना जाता है। वे मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे और उनके साथ उनके घनिष्ठ एवं मैत्रीपूर्ण संबंध थे, जिसकी नींव उनके पिता वीरभानु ने हुमायूँ की मदद करके रखी थी। महाराजा रामचंद्र कला, साहित्य और संगीत के महान संरक्षक और पारखी थे। विश्व प्रसिद्ध संगीत सम्राट मियां तानसेन प्रारंभ में इन्हीं के दरबारी गायक थे और यहीं उनके संगीत को वास्तविक सम्मान और निखार मिला। तानसेन की ख्याति सुनकर ही अकबर ने अपने दरबारी जलाल खान कोरची को भेजकर उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल करने के लिए रीवा से आगरा बुलवाया था। कहा जाता है कि बीरबल भी कुछ समय तक महाराजा रामचंद्र के दरबार से जुड़े रहे थे। राजनीतिक रूप से, उन्होंने 1569 में, कालिंजर का किला अकबर को सौंपकर मुगलों से एक औपचारिक संधि की और उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, लेकिन इसके बदले में उन्होंने अपने राज्य में पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता बनाए रखी। उनका दरबार उस समय उत्तर भारत के सबसे प्रतिष्ठित सांस्कृतिक केंद्रों में से एक था।

राजधानी, संस्कृति एवं समझौते

रीवा शहर की स्थापना किसने की और राजधानी को गहोरा से रीवा क्यों स्थानांतरित किया गया?

महाराजा विक्रमादित्य

संक्षेप में

महाराजा विक्रमादित्य ने 1618 ई. में रीवा शहर की स्थापना की। शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह द्वारा गहोरा को नष्ट कर दिए जाने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से राजधानी को रीवा स्थानांतरित किया गया।

विस्तार से

गहोरा पर लगातार हो रहे हमलों, विशेषकर सलीम शाह सूरी द्वारा किए गए विनाश के बाद, महाराजा विक्रमादित्य (1593-1624) ने एक सुरक्षित राजधानी की आवश्यकता महसूस की। उन्होंने 1618 ई. में बिछिया और बीहर नदियों के संगम पर रीवा नामक नए शहर की नींव रखी और इसे अपनी राजधानी बनाया।

गहोरा, जो बघेल राजवंश की प्रारंभिक राजधानी थी, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण दिल्ली और जौनपुर सल्तनत के शासकों के आक्रमणों का लगातार निशाना बनती रही। 16वीं शताब्दी में, शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह सूरी ने गहोरा पर भीषण आक्रमण कर उसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया। इस विनाश के बाद, तत्कालीन शासकों ने राजधानी को बांधवगढ़ के अभेद्य किले में स्थानांतरित कर दिया। हालाँकि, बांधवगढ़ भी मुगलों की पहुँच से दूर नहीं था। इन सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए, महाराजा विक्रमादित्य (1593-1624) ने एक नई, अधिक सुरक्षित और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राजधानी की आवश्यकता महसूस की। उन्होंने 1618 ई. में, बिछिया और बीहर नदियों के संगम पर, जो प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करती थीं, 'रीवा' नामक एक नए शहर की नींव रखी। यह स्थान न केवल सुरक्षित था, बल्कि व्यापार और प्रशासन के लिए भी अधिक उपयुक्त था। इस प्रकार, रीवा शहर की स्थापना हुई और यह बघेल राजवंश की स्थायी राजधानी बन गया।

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विश्व का पहला सफेद बाघ, 'मोहन', किस महाराजा द्वारा और कहाँ पकड़ा गया था?

महाराजा मार्तण्ड सिंह

संक्षेप में

विश्व प्रसिद्ध सफेद बाघ 'मोहन' को रीवा के महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव ने 27 मई, 1951 को सीधी जिले के बरगड़ी के जंगल से पकड़ा था।

विस्तार से

महाराजा मार्तण्ड सिंह एक कुशल शिकारी और प्रकृति प्रेमी थे। उन्होंने सीधी के पास शिकार के दौरान एक सफेद शावक देखा। उन्होंने उसे जीवित पकड़ लिया, उसका नाम 'मोहन' रखा और गोविंदगढ़ के किले में पाला। दुनिया के सभी सफेद बाघ मोहन के ही वंशज माने जाते हैं।

सफेद बाघों का इतिहास आधुनिक समय में रीवा के महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। वे एक कुशल शिकारी होने के साथ-साथ एक महान प्रकृति प्रेमी और संरक्षणवादी भी थे। 27 मई, 1951 को, जब वे सीधी जिले के बरगड़ी जंगल में शिकार पर थे, उनकी नज़र एक बाघिन पर पड़ी जिसके साथ तीन शावक थे, जिनमें से एक का रंग दूधिया सफेद था। महाराजा ने बाघिन और दो सामान्य शावकों को जाने दिया, लेकिन उस अद्वितीय सफेद नर शावक को जीवित पकड़ने का आदेश दिया। इस शावक का नाम 'मोहन' रखा गया। मोहन को गोविंदगढ़ के किले में बने एक विशेष बाड़े में अत्यंत देखभाल के साथ पाला गया। महाराजा मार्तण्ड सिंह ने मोहन का वंश आगे बढ़ाने के सफल प्रयास किए और उसी के परिणामस्वरूप आज दुनिया भर के चिड़ियाघरों और अभयारण्यों में मौजूद अधिकांश सफेद बाघ मोहन के ही वंशज हैं। इस प्रकार, मोहन केवल एक बाघ नहीं, बल्कि रीवा की विश्वव्यापी पहचान और वन्यजीव संरक्षण में उसके योगदान का प्रतीक बन गया।

किस संधि के तहत रीवा रियासत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षण में आई?

1812 की संधि

संक्षेप में

5 अक्टूबर 1812 को हुई संधि के तहत, रीवा रियासत पिंडारियों के हमलों से सुरक्षा के बदले ब्रिटिश संरक्षण में आ गई।

विस्तार से

19वीं सदी की शुरुआत में पिंडारियों का आतंक मध्य भारत में चरम पर था। महाराजा जय सिंह के शासनकाल में इन हमलों से निपटने के लिए, उन्होंने 5 अक्टूबर 1812 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिससे रीवा एक ब्रिटिश संरक्षित राज्य बन गया।

19वीं शताब्दी की शुरुआत में, मध्य भारत का क्षेत्र पिंडारियों के क्रूर और विध्वंसक हमलों से त्रस्त था। ये संगठित लुटेरों के गिरोह थे जो गाँवों और रियासतों पर हमला कर लूटपाट और हत्याएं करते थे। रीवा रियासत भी उनके हमलों का लगातार शिकार हो रही थी, जिससे राज्य में भारी अस्थिरता और असुरक्षा का माहौल था। तत्कालीन रीवा नरेश, महाराजा जय सिंह (1809-1835), इन हमलों को रोकने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। इसी समय, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी शक्ति का विस्तार कर रही थी और पिंडारियों के दमन के नाम पर भारतीय रियासतों से सहायक संधियाँ कर रही थी। पिंडारियों के आतंक से अपनी प्रजा और राज्य को बचाने के लिए, महाराजा जय सिंह ने 5 अक्टूबर, 1812 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के तहत, रीवा रियासत ने अपनी विदेशी और सैन्य नीतियों पर ब्रिटिश नियंत्रण स्वीकार कर लिया, जिसके बदले में अंग्रेजों ने रियासत को पिंडारियों और अन्य बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करने की गारंटी दी। इस प्रकार, रीवा रियासत औपचारिक रूप से एक ब्रिटिश संरक्षित राज्य बन गई।

प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल

रीवा क्षेत्र में कौन सा मौर्यकालीन स्थल विशाल बौद्ध स्तूप परिसर के लिए प्रसिद्ध है?

देउरकोठार

संक्षेप में

देउरकोठार, रीवा जिले में स्थित, विंध्य क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध पुरातात्विक स्थल है। यहाँ 40 से अधिक बौद्ध स्तूपों के भग्नावशेष और अशोककालीन ब्राह्मी शिलालेख पाए गए हैं।

विस्तार से

यह स्थल प्रमाणित करता है कि बघेलखंड क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था और सम्राट अशोक की धम्म नीति का यहाँ गहरा प्रभाव था। यह प्राचीन दक्षिणापथ व्यापार मार्ग पर स्थित एक प्रमुख केंद्र था।

देउरकोठार, रीवा जिले में स्थित, विंध्य क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध पुरातात्विक स्थल है। यह स्थल इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि बघेलखंड क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था और सम्राट अशोक की धम्म नीति का यहाँ गहरा प्रभाव था। यहाँ लगभग 40 से अधिक विभिन्न आकार के बौद्ध स्तूपों के भग्नावशेष पाए गए हैं, जिनमें से कुछ ईंटों से बने विशाल स्तूप हैं। सबसे महत्वपूर्ण खोजों में अशोककालीन ब्राह्मी लिपि में लिखे गए तीन प्रस्तर स्तंभ लेख शामिल हैं। इन लेखों में सम्राट अशोक की धम्म नीति के सिद्धांतों और बौद्ध संघ के आचार्यों तथा अनुयायियों का स्पष्ट उल्लेख है। इसके अतिरिक्त, यहाँ से उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भांड (NBPW), आहत सिक्के (Punch-marked coins), और टेराकोटा की वस्तुएँ भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई हैं। माना जाता है कि यह स्थल प्राचीन दक्षिणापथ व्यापार मार्ग पर स्थित एक प्रमुख बौद्ध केंद्र और प्रशासनिक इकाई था, जो पाटलिपुत्र को कौशाम्बी, भरहुत और उज्जैन जैसे महत्वपूर्ण नगरों से जोड़ता था। यह स्थल मौर्यकालीन स्थापत्य और अभियांत्रिकी का भी उत्कृष्ट उदाहरण है।

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